Saturday, December 7, 2024

"ना"-कहना

इस भागा-दौड़ी वाली जिंदगी में हर इंसान भाग रहा है. कोई भी एक दूसरे से पीछे नहीं रहना चाहता. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, मनुष्य को अपने घर,परिवार, समाज,बिरादरी, इत्यादि में मिलकर रहना पड़ता है. यह एक अच्छी बात है. आजकल किसी को एक दूसरे की आवश्यकता कब पड़ जाये,यह कहा नहीं जा सकता. पारिवारिक और सामाजिक माहौल में परस्पर प्रेम,मेलजोल,व एक दूसरे का सम्मान करते हुए ही,इंसान का विकास संभव है. कोई आपसे कुछ मदद मांगे तो उसकी मदद करने में कोई बुराई नहीं है. हमें एक दूसरे की मदद करनी चाहिए. परंतु यदि कोई बार-बार आपसे मदद मांगे और यह उसकी आदत बन जाए तो ?
 इसी प्रकार समाज में एक वर्ग ऐसा भी है, जिसे सब सज्जनता की दृष्टि से देखते हैं. ये लोग होते भी सभ्य और सीधे हैं. ऐसे लोग हर समाज और हर जगह मिल ही जाते हैं.
 परंतु इनका यही सीधापन,अक्सर इनके लिए एक चुनौती बन जाता है.इनके सरल स्वभाव की वजह से लोग इनसे अपना हर काम निकलवाना चाहते हैं, फिर चाहे वो घर हो, समाज हो,या ऑफिस हो. बार-बार इन पर हर काम,(चाहे वह दूसरे का हो),का इतना बोझ डाल दिया जाता है,कि व्यक्ति मानसिक रूप से परेशान रहने लगता है. कुछ लोग मदद के नाम पर,दूसरे का पूरा वक्त ही खराब कर देते हैं. उन्हें इस बात का कोई एहसास भी नहीं होता. ऐसी परिस्थितियों में किसी भी व्यक्ति को,"ना",कहना सीखना चाहिए. "ना" कहने से उस व्यक्ति का, " स्वाभिमान "भी बना रहता है. अपने मन में कोई ग्लानि भी नहीं रखनी चाहिए, कि सामने वाला मेरे "ना", कहने से क्या सोचेगा. हर काम के लिए किसी को आश्वासन देने से अच्छा है कि एक बार "ना"कहना. "ना" मतलब "ना".
 इस प्रकार आप एक बार ही बुरे बनोगे, परंतु सामने वाला व्यक्ति भी अगली बार के लिए सचेत हो जाएगा." ना "कहने से आप गिरते, नहीं बल्कि आपका कद और भी बढ़ता है. लोग इसे आपका ईगो (अहंकार),भी समझ सकते हैं, परंतु यह आपके लिए अच्छी बात है.
 अति हर चीज की बुरी होती है. अपनी शर्म, झिझक,को छोड़कर एक बार "ना" तो कहिए. आपको अपने जीवन में बदलाव अवश्य दिखाई देगा. यह बदलाव आपके लिए सकारात्मक और अच्छा ही होगा. परंतु हां, हर काम के लिए "ना" नहीं कहना, यह आपको निर्धारित करना है. आपको अपने लिए एक लक्ष्मण रेखा खींचनी पड़ेगी. आपको उस रेखा के पार नहीं जाना है, फिर चाहे सामने कोई भी हो.

हिटो (चलो) पहाड़

चलो अब लौट चलते हैं,                       अपनी पुरानी राहों में,
 पहाड़ों के दिल से उठी चीत्कार, लौट आओ तुम मेरी सूनी बाहों में,
 चलो दोस्तों फिर हिटो (चलो) पहाड़.
 हमें बुलाये पहाड़ का पानी,
 ठंडी ठंडी सर्द जवानी,
 मीठे-मीठे गीतों की रवानी,
 भरके अपनी आंखों में,नम पानी,
 चलो दोस्तों फिर हिटो (चलो )पहाड़.
 मंदिरों की घंटियां भी,रही हमें पुकार,
 पितरों के थान भी,कर रहे सीत्कार,
 ईष्ट देवों का नाम लेने,फिर चले आओ एक बार,
 पवित्र यह देवभूमि,जो बुलाए हमें बारम्बार,
 चलो दोस्तों फिर हिटो (चलो) पहाड़.
 नौलों का पानी मचल-मचल,
 गगरी में भरने को है बेताब,
 कब पियोगे मुझे ? कब भरोगे मुझे ?
 कोई तो दे दो, इन्हें जवाब,
 चलो दोस्तों फिर हिटो (चलो )पहाड़.
 खेतों और जंगलों का, फर्क मिट गया,
 इंसानों को छोड़,जंगली जानवर यहां पनप गया,
 पूर्वजों ने जोता था, जो खेत, आज वो बंजर हो गया,
 फलों के पेड़ पूछे, मुझे तोड़कर खाने वाला, आज कहाँ खो गया ?
 चलो दोस्तों फिर हिटो (चलो) पहाड़.
 इनके( पहाड़ों के) दुख,दर्द,वेदना,को हमें ही समझना होगा,
 क्या कहना चाहते हैं ये, हमें ही सुनना होगा,
 इनके दिल से आई है यह आवाज,
 बच्चों का बचपन,यहाँ फिर से लौटाना,
 मेरी मिट्टी में इन्हें खिलाना,
 मेरे पेड़ों पर झूला-झूलाना,
 ग्वाले भेजना, शैतानियां करवाना,
 छुप-छुप के मेरी ककड़िया भी चुरवाना,
 मेरी बंजर भूमि पर, हरियाली का हल चलाना,
 खूब मेहनत करना,और अपना पसीना बहाना,
 मेरे(पहाड़ के) दिल में, दर्द बहुत है
 तुम आकर,मेरे घाव भर जाना 
 तुम आना, तुम जरूर-जरूर आना,
 चलो दोस्तों फिर हिटो (चलो )पहाड़ I






Friday, December 6, 2024

"जिंदगी"क्या है?

जिंदगी क्या है?, क्या कभी किसी ने यह सोचा है,
 इसका जवाब सबके लिए, अपने-अपने ढंग से अलग-अलग हो सकता है,
 "जन्म और मौत",के बीच का वक्त, बस सबने इतना जाना है.
 हंसाती है,तो रुलाती भी है,ये जिंदगी,
 अपनी भी है, तो पराई भी है,ये जिंदगी,
 खुशियों का समुद्र तो, दुखों का पहाड़ है, ये जिंदगी,
 कभी सफलता तो,कभी असफलताओं का नाम है ये जिंदगी,
 एक शराबी के लिए, शराब है ये जिंदगी,
 एक ज्ञानी के लिए, उसका ज्ञान है ये जिंदगी,
 जिसने इसको जीना सीखा, उसका तो ठीक,
 वरना बहुत ही बेहरम,और खराब है, ये जिंदगी.
 पंख लगा के कब बीत गया बचपन,
 संगी-साथी,खेल खिलौने,यही तो था छुटपन,
 हर दिल में प्यार था,और था अपनापन,
 सब मिलजुल कर सजाते थे खुशियों का उपवन.
 लड़कपन बीता,आया फिर जीवन का वो दौर, 
 भागम-भाग मची थी,जहां चारों ओर,
 एक संघर्ष, मुकाबला,और आगे निकलने की, लगी थी दौड़,
 अब अपनों के लिए,अपने पास,समय की कमी थी,
 वाह रे जिंदगी,यह भी कैसी घड़ी थी!
 समय का चक्र थोड़ा आगे घूमा,
 जिंदगी अब,"जवानी और बुढ़ापे" के बीच खड़ी थी,
 बहुत सी बातें,अब समझ में आने लगी थी,
 जिंदगी की रफ्तार में थोड़ी कमी थी, परंतु मंजिल अभी,दूर खड़ी थी,
 कुछ खुशियों,कुछ दुखों के साथ,जिंदगी फिर,आगे बढ़ती चली थी.
 वक्त का पहिया,फिर आगे घुमा,
 अब इस पड़ाव पर,जिंदगी खड़ी थी,
 कुछ अब ना याद रहे,मुश्किल बड़ी थी   कमजोर और जर्जर" मेरी काया हो चली थी,
 जो कभी जमाने, और चुनौतियों से लड़ी थी.
 और अंत में,अब आ ही गई वह घड़ी, आखिरकार,
 मृत्युसैया पर मैं लेटा था,सगे संबंधी मातम के लिए थे तैयार,
 इंद्रियां मेरी क्षीण होने लगी, छाया आंखों के आगे अंधकार,
 कुछ क्षण तो ठहर जा ऐ जिंदगी,मन ही मन मैं,करूं विचार,
 पर हाय !आज जालिम थी ये,मैं था बिल्कुल लाचार,
 देह से निकली, उड़ चली फिर वो,पंख पसार,
 एक नये मिलन के लिए,पीछे छोड़ा यह सारा संसार.
 सारी बातों का निकलता एक ही सार,
 जज्बातों का सैलाब है,तो तपती रेगिस्तान है,
 बंजर धरती में नई पौध,नई उमंग, यही तो इसकी पहचान है.
 जब तक जिंदा है,तब तक,पल-पल रूप बदलती हैं ये जिंदगी,
 सबके जीवन में,अलग-अलग रंग भरती है ये जिंदगी,
 सच्चाई तो केवल एक है,                     इसका एक रूप है,एक ही रंग,               किसी से भेदभाव न करना,
 यही तो है इसका ढंग,
 जीवन के अंतिम पड़ाव में,जब जिंदगी साथ छोड़ देती है,
 तब आकर मौत,कफ़न ओढ़ाकर,अपने आगोश में समेट,ले जाती है,
 यही सत्य है, यही फसाना,
 इस अंतिम सफर में,सभी को है बारी-बारी जाना I
 जीवन का अंतिम सत्य, "मौत "है I




 





Thursday, December 5, 2024

अपने काम में जोखिम( रिस्क )उठाना

हमें अपने जीवन में कभी ना कभी जोखिम जरूर उठाना चाहिए. कभी कुछ ऐसी परिस्थितियां पैदा हो जाती है, कि हमारे पास जोखिम उठाने के अलावा, और कोई रास्ता नहीं बचता है, और हमें जोखिम उठाना ही पड़ता है. एक हद तक देखा जाए तो यह ठीक ही है. चुनौतियां हर इंसान की जीवन में होती है, इन चुनौतियों को हमें, "सकारात्मक तरीके" से लेना चाहिए. चुनौतियों के बीच में हमें, जोखिम उठाना ही पड़ेगा, तभी हम इनको हरा पाएंगे. जोखिम उठाने से हमें,या तो, जिंदगी में,"जीत" मिलती है, या फिर एक," नई सीख", मिलती है. यह नई सीख हमारे अंदर, जीतने का जज्बा पैदा करती है.
 वास्तव में जिंदगी में, जोखिम ना उठाना ही, सबसे बड़ा जोखिम है. हर इंसान के कार्यक्षेत्र  में एक सेफ जोन,(सुरक्षात्मक क्षेत्र) होता है, वह इसी जोन के दायरे में कार्य करता है. इस जोन में,"गलती के अवसर "भी कम होते हैं, और , "प्रगति के अवसर" भी कम होते हैं.
 इस सुरक्षात्मक जोन से बाहर निकलकर, अपने ज्ञान, अनुभव, और,कार्य दक्षता, के आधार पर जोखिम उठाकर, उस काम को कुछ नए तरीके,और,मौलिकता के साथ किया जा सकता है.जोखिम उठाने से हमें उस कार्य में," दक्षता" व," कुशलता" प्राप्त होती है. साथ ही यह कार्य में,एक नई ऊर्जा और नयापन भी लाता है.
 जोखिम किसी भी क्षेत्र में लिया जा सकता है, चाहे व्यापार हो, खेल जगत हो,कला हो या विज्ञान हो. एक जगह डूबने से तो अच्छा है कि,तैरने की एक नई कोशिश करी जाए, क्या पता तैर कर पार हो ही जाएंगे.
 विज्ञान जगत में आए दिन नए-नए अविष्कार होते रहते हैं. इन आविष्कारों से एक नई कामयाबी, और नई-नई जानकारियां हमें प्राप्त होती रहती है. ये आविष्कार मानव के लिए फायदेमंद भी होते हैं. यह आविष्कार भी तभी बनते हैं जब उस क्षेत्र में,महान वैज्ञानिकों ने बड़े से बड़ा जोखिम उठाया.
 उदाहरण स्वरूप हमारा देश, "भारत "चांद के, "दक्षिणी ध्रुव", पर पहुंचने वाला पहला देश बना था. भारत ने,"चंद्रयान-3"को, दक्षिणी पोल पर भेज कर, यह कामयाबी प्राप्त की थी. परंतु इससे पहले भारत का, "मिशन चंद्रयान 2",फेल हो गया था.यहीं से वैज्ञानिकों ने एक नया, और बड़ा जोखिम उठाया, और बड़ी कामयाबी हासिल की.
 दुनिया में जितने भी बड़े-बड़े लोग चाहे,पूंजीपति, व्यापारी,व्यवसायी,या राजनेता हो,सब जोखिम उठा कर ही अपने-अपने फील्ड में कामयाब हुए हैं. इतिहास भी गवाह है,जिसने जितना बड़ा जोखिम उठाया, वह उतना ही अधिक कामयाब हुआ है.
 अर्थशास्त्र में जोखिम दो प्रकार के होते हैं, "व्यवस्थित "और,"अव्यवस्थित". व्यवस्थित जोखिम का संबंध पूरे बाजार से होता है, इसके पीछे बड़े-बड़े कारक होते हैं, इसलिए इसे नियंत्रित नहीं किया जा सकता है. पूरा बाजार ही इसकी चपेट में आता है.
 अव्यवस्थित जोखिम का संबंध,किसी खास कंपनी, संगठन, या,क्षेत्र विशेष से होता है. इसके पीछे छोटे कारक होते हैं, इसलिए इसको नियंत्रित किया जा सकता है.
 सार यही है कि,जोखिम उठाकर, कामयाबी के एक अलग स्तर को,छुआ जा सकता है.


Wednesday, December 4, 2024

मातृशक्ति

तू आदि है, तू ही अनंत,
 तू प्राण है,तू है विहंग,
 सब वेदों का सार तुम्हीं हो,
 गंगा की पावन धार तुम्हीं हो,
 हे मातृशक्ति तुझे कोटि-कोटि नमन.
 "वेदो" और "पुराणो"का,ज्ञान तुम्हीं हो,
 नवचेतन संसार का आधार,तुम्हीं हो,
 महादेव की आदिशक्ति हो तुम, गति और प्रकाश भी तुम्हीं हो,
 हे मातृशक्ति तुझे कोटि-कोटि नमन.
 समस्त सृष्टि की रचयिता हो तुम,
 अनेक रूपों में कण-कण में व्याप्त हो तुम,
 ऊर्जा और विज्ञान हो तुम,                                दिशा और आसमान हो तुम,
 हे मातृशक्ति तुझे कोटि-कोटि नमन.
 ईश्वर को भी इस जगत में पड़ी जरूरत मातृशक्ति की,
 कैसा वह दर्शनीय दृश्य हे देवी, जब सब देवों ने तुम्हारी भक्ति की,
 ईश्वर भी झुके,शीश झुका कर,तेरे पावन चरणों में,
 दिए उन्हें ढेरों वरदान, तुमने अपने वर्णों में,
 हे मातृ शक्ति तुझे कोटि-कोटि नमन.
 सिर पर हमारे,हमेशा बनाए रखना,हे माँ अपनी छाया,
 एक तू सच्ची माँ,बाकी सब झूठी मोह-माया,
 सद् मार्ग पर चलते रहे हम,है बस इतनी आस, हे माँ,
 बुराइयों से दूर रहे हम, रखना अपने दिल के पास, हे माँ I
 या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता.          नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः I

Monday, December 2, 2024

सीखो "ना" कहना

मैं सीधा-साधा,सरल,सज्जन व्यक्ति था.
 सभी के काम आना,                                 हर मुश्किल में साथ देना, मुझे बहुत भाता था.
 लोग भी अपने मतलब के लिए, प्यार से  बुलाते मुझे,अपने पास,
 अपने काम निकाल लेते मुझसे,चाहे दिन हो या रात.
 शुरू-शुरू में, यह सब मुझको बहुत भाता था,
 दूसरों का काम होता, मैं गदगद् हो जाता था. परंतु मेरी इसी आदत को जान,
 लोगों ने बना दी मेरी गलत पहचान,
 अपने सभी कामों का, वह मुझ से लेते थे संज्ञान,
 मैं बेचारा भोल-भाला,इन सब बातों से अंजान.
 धीरे-धीरे, बाद -बाद में एहसास हुआ,
 क्या सही,क्या गलत,मेरे साथ हुआ,
 दे रहे थे,ये लोग,मानसिक वेदना मुझे,
 क्या इन्हें कभी मेरी पीड़ा का एहसास हुआ?
 मैं सीधा-साधा सरल सा था,
 दूसरों की मदद,अपने संस्कारों में था,
 जान बूझकर अपनों से धोखा खाना,वो मेरा प्रेम था,
 पर इन लोगों ने मेरी बात को गलत ढंग से समझा था,
 हर काम मुझ से निकलवाने की, यह उनकी गजब सोच का जज्बा था.
 परंतु अब और नहीं,
 अब और नहीं झेल सकता मैं,
 तुम भी समझो,फरिश्ता नहीं इंसान हूं मैं,
 बार-बार अपने धैर्य,सब्र,की परीक्षा नहीं दे सकता है मैं,
 तुम्हारे कहने पर,रात को दिन,और,दिन को रात,नहीं कह सकता मैं,
 इस अजब कश्मकश में,अब नहीं उलझ सकता हूं मैं.
 अब मैं तुम्हारे लिए खराब हो जाऊंगा,
 तमाम लांछन लगाओगे,और मैं बदनाम हो जाऊंगा,
 कटने लगोगे तुम मेरी परछाई से,
 और मैं एक बदनुमा दाग़ हो जाऊंगा.
 परंतु अब मुझे फर्क नहीं पड़ता है,
 क्योंकि मैंने अब, "ना"कहना,सीख लिया है,
 मंझधार में फसी नाव को,मैंने निकालना सीख लिया है,
 अपने स्वाभिमान को ऊपर उठा के रखना,
 मुझे यह सबक मिल गया है,
 मैं इंसान हूं, अब मैंने "ना",कहना सीख लिया है.                                                           अब मैंने,"ना "कहना सीख लिया है.




शब्द

लिखने के लिए क्या चाहिए बस, "शब्द ",।
 शब्द से ही शुरुआत होती है,किसी भी विषय की।हर चीज को समझने,देखने,और कहने के लिए,अलग-अलग शब्द हैं।अपने शब्दों के माया-जाल में,अपने पाठकों को बाँधना, एक कुशल लेखक का काम है। शब्द रचना ही तो लेखक का रचा हुआ संसार है। शब्दों में सच्चाई, गहराई,अपनापन,और ऐसा दृष्टिकोण होना चाहिए कि हम सही और गलत तथ्यों में अंतर कर पाए। शब्दों में स्पष्टवादिता का होना आवश्यक है, हड़प्पा मोहनजोड़ारो,मेसोपोटामिया,जैसी प्राचीन सभ्यता और संस्कृतियों का वर्णन अलग-अलग शब्दों में उल्लेखित है।
 शब्दों के ऊपर एक छोटी सी लिखित कविता है।
                         शब्द

 शब्द हूँ मैं,आदि अनंत हूं मैं,
 जब से सभ्यताये बनी,
 तुम्हारा अस्तित्व हूं मैं.
 मेरा ना कोई एक रूप,
मेरा ना कोई एक रंग,
 लिबास मेरा बदल जाता,
 ढल जाता तुम्हारे संग.
 अलग-अलग शिलाओं में मैं हूंँ,
 भिन्न-भिन्न वर्णमालाओं में मैं हूँ,
 चार कोस पर जो बदल जाए,
 उस पानी की जलधाराओ में हूँ।
 मैं आदिम,मैं प्राचीन हूँ,
 जग तक तुम्हारी बात पहुंचाये, मैं वो जज्बात हूंँ,
विश्व के हर प्राणियों को आपस में जोड़ता हूंँ,
 एक दूसरे की भाषा संस्कृति से अवगत कराता हूंँ,
 लेकर चलता हूं मैं नूतन विचार,
 बदले मेरा रूप बार-बार।
 मैं शब्द हूँ, मैं शब्द हूँ.
 वेद पुराणों,धर्म शास्त्रों में मैं हूँ,
 बाइबिलों,तो कुरानों की आयतो मैं हूं,
   मैं धर्म शास्त्रों का पवित्र विचार,
 मानव सभ्यता को और करूँ प्रखार।
 बोली को उकरने का,माध्यम मैं हूँ,
 भाषाओं के महासागर में उतरने वाला नाविक मैं हूँ,
 व्याकरण की छांव में बैठा पथिक मैं हूं,
 धवनियों को जो जोड़े,वह अडिग मैं हूँ,
 रूढ़ भी मैं हूँ, यौगिग भी मैं हूँ,
 मैं कर्म में,और मैं,धर्म में भी हूंँ,
 मैं शब्द हूँ, मैं शब्द हूँ I



Saturday, November 30, 2024

जवानी और बुढ़ापा

एक बार जवानी और बुढ़ापे की भेंट हुई,
 जवानी में गुरुर,ताकत,और अहंकार था,
 जबकि बुढ़ापा शांत,निश्चल, और कमजोर था.
 हंसने लगी जवानी,बुढ़ापे को देखकर !
 फिर सुनाई बुढ़ापे ने अपनी कहानी, घुटने टेक कर.
 कभी मैं भी था तुम्हारी तरह जवान,
 दिल में मेरे भी थे ढेरों अरमान,
 सोचता था मैं दिन-रात, छू लूं यह सारा आसमान.
 जोश तो था पर होश नहीं, आजादी थी पर आगोश नहीं,
 दौलत भी उस समय मैंने खूब कमाई,
 रिश्तो में दूरियां भी मैंने बनाई,
 अमीरी के घमंड में चूर-चूर,
 सब रहने लगे मुझसे दूर-दूर.
  दौलत,ताकत,घमंड,में औकात मैंने सभी को उनकी बतलाई,
 ना जीवन साथी को बक्शा, बच्चों से भी दूरी मैंने बनाई.
 प्यार से जो भी मिलने आया मुझ से,       उसने अपने मुंह की खाई.
 वक्त बदला,परिस्थितियां बदली,आया जीवन चक्र का वह मोड़,
 जीवनसाथी का स्वर्गवास हुआ,
 अपने बच्चे गये मुझे छोड़.
 हालात अब बदल गए थे,
 मेरी ताकत,जोश, गुरूर,और अहंकार,अब तो न जाने कहीं खो गए थे,
 इक पैसा था साथ मेरे, बाकी सब मुझको छोड़ चले थे.
 वक्त का पहिया और आगे घूमा........
 धुंधली दृष्टि, जर्जर शरीर, और कैसी लाचारी थी,
 तीष्ण वेदना दिल में, और भूख प्यास मेरी मर चुकी थी.
सोचता था,प्रेम और वात्सल्य की,दो बातें कोई कर लेता मेरे साथ,
 दे देता उसको अपना सब कुछ,             जितनी दौलत मेरे पास.
 बोला बुढ़ापा आगे....... 
 रिश्तो की अपनी कद्र करो, अच्छे बुरे का फर्क करो,
 दुखियों-बेसहाराओं की मदद करो,
 सबके दिल में अपनी छाप छोड़ो.
 दौलत का घमंड है झूठा,
 अंत सभी का एक सा होता.
 सुनकर बातें बुढ़ापे की,
 नम हुई आँखें जवानी की,
 छूकर बुढ़ापे के पैर, मांगने लगी जवानी माफी,
उफ़, यह बर्फ सी ठंडक,उस जर्जर जिस्म में कहां से आई,
 निश्वास शरीर, पथराई आंखें,अरे तुम कुछ बोलो भाई,
 कलेजे को चीर देने वाला रुदन,
 फिर जवानी ने गाया था,
 आखिर वो उसका ही तो,भविष्य था,
 जो उसको दिखाने आईना, पल भर के लिए लौट आया था.










 

प्रेरक पंक्तियां

• किसी को अपनी बातें समझाने के लिए,
 शब्दों की जरूरत नहीं,
 समझने वाले तो,इशारों में भी समझ जाते हैं.
•  जीवन भर ना समझ पाए की,जिंदगी क्या है?
 मौत की गोद में,लेटने से क्षण भर पहले,  पता चल गया.
 • असली हीरे की परख जौहरी को होती है,
 पर उस कोयले का क्या,जहां से हीरे निकलते हैं ?
 • इंसान की पेट की भूख तो, रोटी शांत कर देती है,
 पर दौलत की भूख,जीवन भर,कभी शांत नहीं होती.
 • किसी को गिराने के लिए ख़ुद गिरने की जरूरत नहीं,
 गिरने-गिराने वाले यहां, हर जगह मौजूद है,
 बस अपने, "हौसले" और, "कदम",थोड़े लंबे होने चाहिए.
• ढलने पर सूरज की किरणें कम हो जाती है,
 रात में चांद की,चांदनी बढ़ जाती है,
 जो इंसान बिकने के लिए तैयार बैठा हो उसका भाव कम हो जाता है,
 जो इंसान ना बिके,उसका भाव बढ़ जाता है,
 फिर वो बेशकीमती हो जाते हैं, 
 उनकी जगह फिर कुछ खास हो जाती है.
  • शेर को सर्कस में जरूर देखा होगा,
 पर किसी भेड़िए को नहीं,
 उनका नेतृत्व,और एकता ही,उन्हें दूसरों से अलग बनाती है .
• जिन्हें आज तुमको देने के लिए अपना वक्त नहीं है,
 उनके लिए बस एक ही मंत्र है,
 कामयाबी ऐसी पाओ की,फिर वह तुम्हारे वक्त के लिए तरस जाए.
  •  घनघोर आंधी तूफानों में भी डाल से जो फूल टूटा न था,
 अपनी सुगंध से जो सभी को,महकाता रहा था,
 हाय उसे क्या पता था,
 सूख जाने पर अपनी डाल ही,उसे नीचे गिरा देगी.



Friday, November 29, 2024

उत्तराखंडी (पहाड़ी ) ड्राइवर की कहानी

पहाड़ी ड्राइवरों की भी वही कहानी,
 राहें है पुरानी,पर नई है जवानी.
 दिल में छुपा के अपना दुख-दर्द,
 आंखों में लेकर चले हैं पानी.
 गांव-गांव से उठाते हैं,यह सवारियाँ,
 मंजिल तक छोड़ने की इनकी जिम्मेदारियाँ,
 धूप में भी इनको नहीं दिखती अपनी परछाइयाँ,
 क्या कभी इन्होंने मांगी किसी से,अपनी हिस्सेदारियाँ ?
 पहाड़ी ड्राइवरों की भी वही कहानी,
 राहें हैं पुरानी,पर नई है जवानी.
 पहाड़ के टेढ़े-मेढ़े मोड़ों पर,गाड़ी चलाना नहीं है आसान,
 गहरी-गहरी खाइयाँ देखकर, कितने हो जाते हैं परेशान,
 अनाड़ियों की तो हो जाती है क्षण भर में पहचान,
 कुशल ड्राइवर तो है सवारियों के लिए, भगवान के समान,
 पहाड़ी ड्राइवरों की भी वही कहानी,
 राहें हैं पुरानी,पर नई है जवानी I
ईष्ट देवों का नाम लेकर चले यह सुबह-शाम,
 अपने काम बाद में पहले सवारियों का काम,
 भागा दौड़ी में नहीं मिल पाता इनको पूरा आराम,
 परिवार के लिए, पेट के लिए,मेहनत करके, बनाते हैं ये अपना नाम.
 पहाड़ी ड्राइवरों की भी वही कहानी,
 राहें हैं पुरानी,पर नई है जवानी I
 सीजन (गर्मी, अशोज,दीवाली, इत्यादि) में कमाई करें दबाकर,
 अपने खून-पसीने को,दूसरों से छुपाकर,
 रात की नींद,दिन के चैन को हराकर,
 करने चला है वह पूरे,अपने कुछ सपने बचाकर.
 पहाड़ी ड्राइवरों की भी वही कहानी,
 राहें हैं पुरानी,पर नई है जवानी.
 सफर में पड़ने वाले होटल, ढाबे, इनका है दूसरा घर-बार,                                        रोज का आना-जाना होता, तीज हो,या कोई त्यौहार.
 इनके साथ चार सवारियाँ भी,होटलों , ढ़ाबों में आती बार-बार,
 खाना महंगा है,स्वाद कैसा है?सवारियाँ करें बस यही विचार .
 पहाड़ी ड्राइवरों की भी वही कहानी,                राहें हैं पुरानी,पर नहीं है जवानी .
 जीवन इनका नहीं है आसान,
 बीच जंगल गाड़ी खराब हो,तो कौन आता है इनके काम ?
 टूटी सड़कें, ढहते पहाड़, विषम परिस्थितियां,  मौसम की मार,
 दो दिन का सफर तब,बन जाए छः दिन की मार,
 जीवन तब बन जाए ऐसा, जैसे हो तलवार की धार.
 पहाड़ी ड्राइवरों की भी वही कहानी,
 राहें हैं पुरानी,पर नई है जवानी.
 हाथ जोड़कर आपसे इतना ही है निवेदन भाइयों,
 नशे से खुद को रखो बचाकर,
 सुट्टे, शराब,से हाथ छुड़ाकर,
 एक नया सफर, एक नई मंजिल,
 कर रही है बांहे खोल तुम्हारा इंतजार,
 मेहनत करो,पैसा कमाओ,और संभालो अपना घर-बार.
 पहाड़ी ड्राइवरों की भी वही कहानी,
 राहें हैं पुरानी,पर नई है जवानी.








Thursday, November 28, 2024

" सोये हुए मनुष्य को..........

कलम जब थक जाए, हाथ जब रुक जाये,
 जड़ हो जाए जब, नव चिंतन विचार,
 अपनी जिज्ञासा पर करके प्रहार,
 सोये हुए मनुष्य को जगाने की कोशिश में बार-बार  I
 इरादे कभी टूट जाते हैं, हौसले पीछे छूट जाते हैं,
 आशा की जब ना दिखे कोई किरण,
 हाय ! हम अब कैसे जीतेंगे यह रण ?
 करना होगा इन दुष्ट विचारों पर वार,
 सोये हुए मनुष्य को जगाने की कोशिश में बार-बार I
 झूठ, छल,कपट,प्रपंच,हावी होते दिख रहे हैं,
 साथी जो अपने साथ थे,वो धूमिल होते दिख रहे हैं,
 रात में भोर तारे को, ढूंढने की कोशिश है, इस बार,
 काली घटाओं सा,छाया है मन पर यह कैसा अंधकार ?
 सोये हुए मनुष्य को जगाने की कोशिश में बार-बार I
 पल-प्रतिपल दम तोड़ते हुए,रेत के सपने,
 आंधियों पर बैठी हैं, सुनहरी धूप की किरणें,
जुगनू टिमटिमा रहे हैं,करने को अंधेरे पर प्रहार ,
 करते हैं कोशिशें,पर नाकाम हो रहे हैं हर बार,
 सोये हुए मनुष्य को जगाने की कोशिश में बार-बार  I
 कर्तव्य पथ से हटा रहे हैं, विश्वास सारा गिरा रहे हैं,
 हम मंजिल को तलाशे,या मंजिल ले हमें तलाश,
 टुकड़े-टुकड़े कर दिया भावनाओं को, जो उड़ रही थी पंख पसार,
 सोये हुए मनुष्य को जगाने की कोशिश में बार-बार  I
 बस अब बहुत हुआ,अंतर्मन में अपने झांकना होगा,
 बार-बार टूटे हैं, अब नहीं बँटना होगा,        नव विचारों को गति दो,कुंठा सारी छोड़ दो,
 मन के वेग से करके प्रहार,
 सोये हुए मनुष्य को जगाने की कोशिश में बार-बार I
 भीतर अपने प्रज्वलित करनी होगी, विचारों की अग्नि,
 मुसीबत के पहाड़ को करो, चीर के छलनी,
 इरादों को गगनचुंबी इमारतो पर, बैठाना होगा,
 कठिन परिस्थितियों, मुश्किल चुनौतियों, को अपने अनुकूल ढालना होगा,
 तपना होगा रेगिस्तान की रेत सा,
 बहना होगा महासागर के प्रबल वेग सा,
 बस अब बढ़ो, मिलकर चलो,
 वज्र सा बनके, करो इन चट्टानों पर प्रहार,
 सोये हुए मनुष्य को जगाने की कोशिश में बार-बार I



 






लेखक और पाठक

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