शब्द से ही शुरुआत होती है,किसी भी विषय की।हर चीज को समझने,देखने,और कहने के लिए,अलग-अलग शब्द हैं।अपने शब्दों के माया-जाल में,अपने पाठकों को बाँधना, एक कुशल लेखक का काम है। शब्द रचना ही तो लेखक का रचा हुआ संसार है। शब्दों में सच्चाई, गहराई,अपनापन,और ऐसा दृष्टिकोण होना चाहिए कि हम सही और गलत तथ्यों में अंतर कर पाए। शब्दों में स्पष्टवादिता का होना आवश्यक है, हड़प्पा मोहनजोड़ारो,मेसोपोटामिया,जैसी प्राचीन सभ्यता और संस्कृतियों का वर्णन अलग-अलग शब्दों में उल्लेखित है।
शब्दों के ऊपर एक छोटी सी लिखित कविता है।
शब्द
शब्द हूँ मैं,आदि अनंत हूं मैं,
जब से सभ्यताये बनी,
तुम्हारा अस्तित्व हूं मैं.
मेरा ना कोई एक रूप,
मेरा ना कोई एक रंग,
लिबास मेरा बदल जाता,
ढल जाता तुम्हारे संग.
अलग-अलग शिलाओं में मैं हूंँ,
भिन्न-भिन्न वर्णमालाओं में मैं हूँ,
चार कोस पर जो बदल जाए,
उस पानी की जलधाराओ में हूँ।
मैं आदिम,मैं प्राचीन हूँ,
जग तक तुम्हारी बात पहुंचाये, मैं वो जज्बात हूंँ,
विश्व के हर प्राणियों को आपस में जोड़ता हूंँ,
एक दूसरे की भाषा संस्कृति से अवगत कराता हूंँ,
लेकर चलता हूं मैं नूतन विचार,
बदले मेरा रूप बार-बार।
मैं शब्द हूँ, मैं शब्द हूँ.
वेद पुराणों,धर्म शास्त्रों में मैं हूँ,
बाइबिलों,तो कुरानों की आयतो मैं हूं,
मैं धर्म शास्त्रों का पवित्र विचार,
मानव सभ्यता को और करूँ प्रखार।
बोली को उकरने का,माध्यम मैं हूँ,
भाषाओं के महासागर में उतरने वाला नाविक मैं हूँ,
व्याकरण की छांव में बैठा पथिक मैं हूं,
धवनियों को जो जोड़े,वह अडिग मैं हूँ,
रूढ़ भी मैं हूँ, यौगिग भी मैं हूँ,
मैं कर्म में,और मैं,धर्म में भी हूंँ,
मैं शब्द हूँ, मैं शब्द हूँ I
Nice post
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