Friday, December 20, 2024

आयुर्वेद


 आयुर्वेद विश्व की सबसे प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों में से एक है l आयुर्वेद संस्कृत भाषा के शब्द ,"आयुष" और "वेद" से मिलकर बना हुआ है।"आयुष "का अर्थ होता है ,जीवन और "वेद" का अर्थ होता है ज्ञान। अर्थात हमारा जीवन क्रम और ज्ञान ही आयुर्वेद है।
आयुर्वेद में मनुष्य के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक संतुलन पर जोर दिया जाता है। आयुर्वेद में मनुष्य की खानपान, तनlव ,दिनचर्या व जीवन शैली में बदलाव किया जाता है।जिस प्रकार समस्त ब्रह्माण्ड का निर्माण पंचतत्वो,पृथ्वी,जल,वायु, अग्नि और आकाश से होता है ,हमारे शरीर का निर्माण भी इसमें शामिल है। इन पंच तत्वों को" पंचमहाभूत "भी कहा जाता है। इन पंच तत्त्वों के असंतुलन से अनेक रोग पैदा हो जाते हैं, आयुर्वेद में इसी असंतुलन को ठीक करके चिकित्सा की जाती है।  आयुर्वेद में प्राकृतिक जड़ी बूटीयों, तेल, मालिश एक्यूपंक्चर व योग के माध्यम से चिकित्सा की जाती है। हमारे शरीर में अधिकतर बिमारियाँ तीन दोषो के कारण होती हैं ,यह  होते हैं वात, पित्त और कफ। इनके असंतुलन को,आयुर्वेद में ठीक किया जाता है। आयुर्वेद का जनक,"ऋषि धनवंतरी" को कहा जाता है। इन्हें भगवान विष्णु का अवतार भी कहा जाता है। ये देवी देवताओं के वैद्य थे।
आयुर्वेद में अनेक प्रकार की जड़ी बूटियांँ होती हैं। "अश्वगंधा "को आयुर्वेदिक जड़ी बूटीयों का राजा कहा जाता है। आयुर्वेद में "शिलाजीत "सबसे शक्तिशाली औषधि होती हैl इसी प्रकार तुलसी को "आयुर्वेद की रानी" औषधि भी कहा जाता है।
आज की इस भागा दौड़ी वाली जीवन शैली में हम सब आयुर्वेद को अपना सकते हैं। प्रातः काल व्यायाम ,योग ,दौड़ना या टहलना, अपने भोजन में ताजा,व मौसमी फल और सब्जियों को शामिल करना, पर्याप्त नींद  लेना,मदिरापान ना करना, व एक सकारात्मकता और नवचेतना के साथ जीवन जीना ,आयुर्वेद में शामिल है।स्वस्थ और अच्छे जीवनशैली के लिए आयुर्वेद को अपनाना चाहिए l आयुर्वेद अपने आप में एक संपूर्ण विज्ञान है।

Thursday, December 19, 2024

पहाड़ों पर ठंड का मौसम

पहाड़ों पर छाया,ठंड का मौसम,
 घने कोहरे, गिरती ओस,सर्द हवाओं का  मौसम,
 बर्फ की चादर सा ओढ़े,आया प्यार का मौसम,
 कंपकपाती ठंड में आया,गरम पकोड़े, चाय का मौसम।
 प्यारी लगती है चढ़ते सूरज की, तपिश भी,
 चूल्हे से उठता धुआँ,अब भाये कभी भी,
 चाय की केतली हो,या सब्जी की कढ़ाई भी,
 भरपेट भोजन हो,फिर काम की चढ़ाई भी।
 गर्म कपड़ों में लिपटे,सीधे-साधे लोग अपने,
 दिनचर्या को बनाये रखते, मेहनती लोग अपने,
 ठंड में बरकत रखने वाले,ऊर्जावान लोग अपने,
 घने कोहरे को चीर, उस छोर,जाने वाले लोग अपने।
 कोई भी मौसम हो, हम ना मेहनत करना छोड़ते हैं,
 बर्फ की सिल्लियों पर,हम नंगे पांँव चलना सीखते हैं,
ओलो की बरसात में भी,हम आग जलाना सीखते हैं,
 हम पहाड़ी है जनाब, गैरों को भी अपना बनाना जानते हैं।
 बर्फीला तूफान हो,या सर्द काली रात हो,
 ठंडी हवाओं का दिन हो,या अलाव तापती शाम हो,
 फटी रजाइयों का साथ हो, और ना कंबल अपने पास हो,
 हौसला ठंड क्या तोड़ेगी,जब सामने पहाड़ी इंसान हो।
 मौसम से हम कर लेते हैं दोस्ती, अपने हिसाब से,
 ढल जाते हैं हम,प्रकृति के हिसाब से,
 लेते हैं हम उतना ही,अपनी जरूरत के हिसाब से,
 कमाते भी हैं हम,अपनी मेहनत के हिसाब से।
 ठंड का मौसम लगे,बहुत ही प्यारा,
 पूरे पहाड़ों का होता है,अलग ही नजारा,
 गुलाबी ठंड में, कोहरे में लिपटा,देवभूमि ये हमारा,
 अद्भुत,अलौकिक,पहाड़ों में ठंड का मौसम, बड़ा ही न्यारा।



कलम की व्यथा

एक दिन कलम खामोश सी पड़ी थी,
 मैंने कलम से पूछा,
 आज खामोश हो क्यों,
 इतना व्यथित हो क्यों?
 चुप्पी अभी भी बरकरार थी,
 बंद लबों पर कुछ तो आस थी।
 थोड़ा और झंझोरा, थोड़ा और निचोड़ा,
 कलम ने जवाब दिया तब,
 अपने अंदर का दुख-दर्द बयां किया अब।
 मैं तो केवल माध्यम हूँ,
 विचार तो तुम्हारे हैं,
 मैं तो केवल मंजिल हूंँ,
 राहें तो तुम्हारी है,
 चुनौतियांँ, समस्याएंँ हजारों हैं,
 पीड़ा-वेदना हर दिल में है,
 उजाले की चाह में,भटक कर,
 तुम पथ-प्रदर्शक तो बनो।
 फैली है समाज में गंदगी,और कुरुतियांँ कईं,
 मेैला पड़ा है दामन,श्वेत वस्त्रों में कईं,
 कहीं पर व्यभिचार है,तो कहीं पर है भ्रष्टाचार,
 धोने को इनके दाग,
 तुम तेज करो,अपने विचारों की आग।
 जातियों में बटाँ हुआ,
 पिछड़ा और दलित समाज,
 सदियों से कुचला हुआ,
 पीड़ित और शोषित समाज,
 उठाओ उनकी समस्याओं को,
 जगाओ जड़ चेतन समाज को,
 लौटकर इनकी सुधाओं को, 
आगे बढ़ाओ समाज को।
 चुनौतियांँ हर तरफ है,
 खामोशियांँ चादर लपेटे हैं,
 पहाड़ों के सीने में छुपे हैं कितने ज्वालामुखी,
 जो इसने अपने में समेटे हैं,
 चीरकर पहाड़ों के सीने,
 करना होगा इलाज इनकी बीमारियों का,
 लौह पुरुष फिर बना होगा,
 भार उठाकर, अपनी जिम्मेदारियों का।
 मेरे (कलम)में,शक्ति बहुत है,
 बहुत ही तेज मेरा आत्मबल है,
 तलवार से भी तेज धार मेरी है,
 सीमाओं का मेरा,कोई ओर,कोई छोर नहीं है,
 दिशा निर्देशित हूंँ मैं, राह मेरी उज्जवल है।
 अपनी लेखनी के माध्यम से बनना होगा तुम्हें युग पुरुष,
 लेखनी में अपनी गहराई लाओ,
 विचारों को अपने और बढ़ाओ,
 सबसे जुड़कर,सिंचित करो,तुम नव नूतन विचार,
 आदि पुरुष बनके,करो समाज का तुम  उद्धार।
 हर कलम की यही व्यथा,और काम है,
 बड़े परिवर्तनों में जुड़ा,उसका भी नाम है।





Wednesday, December 18, 2024

वो जोड़ा

नव विवाहित एक जोड़ा,
 प्रेम में डूबा हुआ,
 मस्ती में लिपटा हुआ, 
 आपस में खोया हुआ।
 नया नया मौसम था, नई-नई जवानी थी,
 बदलें मौसम फिर, दोनों में अजब रवानी थी,
 नये-नये पत्ते थे, नई-नई शाखायें थी।
 घर गृहस्थी की गाड़ी दौड़ी जब,
 खटपट की आवाजें आई,उनकी गाड़ी में तब,
 प्रेम का स्थान अब तानों ने ले लिया,
 मधुर भाषी जुब़ान ने अब,नीम पी लिया।
 होने लगी फिर रोज की लड़ाईयाँ,
 ईर्ष्या,तनाव, बुराई,क्लेश की थी गहराइयांँ ,
 अपशब्दों का कोई वाण ऐसा ना बचा, जो 
 छूटा ना था,
 भीतर थी वाणों की शैय्या, बस बाहर यह जिस्म बचा था।
 बाहर वाले क्या रिश्तो के टूटने से,खुश नहीं होते हैं?
 उनके क्या है पैमाने,जिसमें वह पीते हैं?
 दोनों नासमझी में करते रहे यह गलतियांँ,
 धूल चेहरे पर,और आईने के साथ मस्तियांँ। 
 एक दूसरे की आंँखों में देकर वह आंँसू,गहरे,
 चीरकर कलेजे को, दोनों अब किस मोड़ पर   हैं ठहरे,
 टकराव हुआ,ठहराव हुआ,फिर एक दूजे से, लंबा अलगाव हुआ।
 अब बाग ही नहीं, वहांँ बगीचा भी था,
 फूल और कलियों का नवजीवन,दोनों ने साथ सींचा भी था,
 फिर से दोनों एक हुए,
आखिर उन्हें अपने फूलों को बचाना भी तो था।
 अपने थे जो,वह सब खो गए थे,
 आंँखें सूख गई,किस-किस के लिए वह रोये  थे। 
वक्त का चक्र,अब आगे बढ़ता है।
 थोड़ा-थोड़ा अब वो,एक दूसरे को समझने लगे थे,
 गिले-शिकवे जितने थे,वो अब गलने लगे थे,
 अपनी अपनी गलतियों का उन्हें अब    आभास था,
 बात तो दिल की, दिल में थी, बाहर खुला आसमान था।
 जिम्मेदारियांँ अब कंधों पर थी,
 मिलकर चलने में ही,दोनों की भलाई थी।
 वक्त कटता रहा,समय बितता रहा,
 पंछी अब खोंसला छोड़, उड़ चुके थे 
 बालों में सफेदी, और शरीर अब झुक चुके थे,
 अब ना कोई इच्छा थी,ना कोई उमंगें थी,
 दिन रात लड़ते रहे जिसके लिए, अब कहांँ वो तरंगे थी।
 मृत्यु शैय्या पर लेटी थी पत्नी,
 हाथ थाम अपने साथी का,
 निशब्द काया थी, आंँखों में दोनों के आंँसुओं की झड़ी थी,
 मास था कार्तिक का,बाहर दीपों की लड़ी थी,
  यहीं पर तो जीवन साथी की जरूरत, हर  काम में जरूरी थी,
 प्राण छोड़े जब एक ने, दूसरे की अर्थी फिर वहांँ क्यों, तैयार खड़ी थी?
 यही था वो प्रेम, यही थी वो शक्ति,
 दो नश्वर शरीरों को,दे दी जिन्होंने मुक्ति।
 साथ जीवन भर का हो,
 प्रेम राधा-कृष्ण सा हो।












Tuesday, December 17, 2024

सफर



क्या कभी आपने सोचा है कि जिंदगी एक सफर ही तो है, हमें तो बस चलते जाना है। इस सफर का अंत कहां है?, किसी को भी नहीं मालूम। बस चले जा रहे हैं, अपनी मंजिलों की तलाश में हम।
 उम्र के हर पड़ाव में सफर की परिभाषा, और तय मंजिलों का लक्ष्य,बदलता रहता है। उदाहरण के लिए एक छोटे बालक का सफर, विद्यालय तक का होता है, तथा मंजिल अच्छी शिक्षा पाना होता है। समय-समय पर मंजिले बदल जाती हैं,तो सफर भी बदलता रहता है। सफर तो जिंदगी भर चलता रहता है, शायद उससे आगे भी। सफर में भटकना और बिछड़ना भी बहुत मायने रखता है।
 अपनी-अपनी मंजिले भी,हर किसी को आसानी से नहीं मिलती, कुछ लोग तो राह में इतनी ठोकरें खा चुके होते हैं कि, दोबारा उठने की हिम्मत तक नहीं कर पाते।यही ठोकरें तो इंसान को मजबूत बनाती है, उसके आत्मबल को,नव संचार व,नव ऊर्जा प्रदान करती है। यह एक ऐसी अग्नि पैदा करती है, जिसमें तपकर इंसान या तो जलकर हार मान ले,या तपकर कुंदन बन जाये। किसी भी नए सफर में अनेकों साथी मिलते हैं, और फिर बारी आती है बिछड़ाव की। उदाहरण के लिए, किसी गाड़ी की अनजान सवारियांँ, सब बारी-बारी अपनी मंजिल पर उतरती रहती हैं, और एक दूसरे से बिछड़ती रहती हैं। शायद मिलते ही है लोग सफर में,बिछड़ने के लिये। कोई सफर किसी को क्षणिक खुशी,तो किसी को गहरा दर्द भी दे जाता है।
 सफर में चलते जाने की जो चुनौतियां होती हैं, वह व्यक्ति के आत्मबल को भी बढ़ाती हैं। सबसे बढ़िया सफर वह है,जो अकेले तय किया जाता है। अकेला चलना फायदेमंद रहता है, इससे व्यक्ति में आत्मविकास, आत्मविश्वास,व आत्मबल, में बढ़ोतरी होती है। भीड़ तंत्र का हिस्सा बनने की बजाय, अकेले अपनी मंजिल तक का सफर तय करना,अच्छा है। नये-नये सफर में व्यक्ति को, नई-नई जानकारियांँ मिलती रहती हैं। इससे व्यक्ति के ज्ञान,और अनुभव में, इजाफा होता है। अलग-अलग जगहों पर व्यक्ति को, अलग-अलग,रहन-सहन, खान-पीन, और नई चीजों का अनुभव होता है। वैसे भी,
 चार कोष में बदले पानी,
 चार कोष में वाणी।
 कभी-कभी सफर इंसान में एक, सकारात्मक बदलाव लाता है। कोई नया सफर, व्यक्ति की सोच, उसकी दिशा,और उसके व्यक्तित्व तक को बदल देता है। यह प्रभाव विभिन्न व्यक्तियों पर अलग-अलग हो सकता है।
 और अंत में, जिंदगी के सफर में अकेले ही आए थे,और अंत में अकेले ही जाएंँगे।
 सफर से यहां उद्देश्य केवल नई-नई जगहों पर,घूमना फिरना ही नहीं है, सफर तो रोज का है, हर किसी का है,पल-पल का है, आज और कल का भी है। मंजिलों से रोज मिलने का नाम सफर है, तो मंजिले ना मिले, तो हिम्मत ना हारना भी सफर है। सफर कामयाबी का भी है, और नाकामयाबी का भी है। सफर हिम्मत करने का नाम है, दोबारा खड़े होकर,गतिशील होने का नाम भी है। हर जीवन का संघर्ष,एक सफर ही तो है। निरंतर प्रयास करना, और किसी का हाथ थाम कर, उसको उसकी मंजिल तक छोड़ सको, तो छोड़ देना,यही सफर है। जो दूसरों को उनकी मंजिल तक पहुंचाते हैं, ईश्वर खुद ही उनके लिए मार्ग बनाते हैं। इंसानियत और जिंदादिली ही एक नया सफर है।

Sunday, December 15, 2024

युद्ध और शांति

वैश्विक पटल पर इस समय,युद्ध की वजह से, पूरे विश्व की स्थिति,काफी भयावह बनी हुई है। क्या किसी भी समस्या का समाधान युद्ध द्वारा संभव हो सकता है?  इस प्रश्न का उत्तर सबके लिए अलग-अलग हो सकता है। युद्ध का परिणाम चाहे जो कुछ भी हो,परंतु एक चीज का हमेशा से विनाश होता आया है,और वह है,मानवता। युद्ध से सबसे अधिक क्षति, निर्दोष नागरिकों,को ही प्राप्त होती है। युद्ध से कितने मासूम लोग अपंग,अपाहिज,तथा अनाथ हो जाते हैं,भुखमरी और बदहाली का आलम होता है। युद्ध ग्रसित देश का मंजर, काफी भयावह और रुलाने वाला होता है।
 मासूमों और निर्दोषों की लाशों पर आखिर, युद्ध विजय कहांँ तक उचित,और न्याय संगत है। सबसे अधिक नुकसान तो मानव जाति का ही होता है। 
 वैश्विक पटल पर भी इस समय कुछ ऐसी ही स्थिति बनी हुई है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि, हमारी पृथ्वी ज्वालामुखी के मुँहाने पर बैठी है,बस उसके फटने का इंतजार है। कालांतर में हम दो विश्व युद्ध देख चुके हैं, प्रथम,व द्वितीय विश्व युद्ध।
 प्रथम विश्व युद्ध सन 1914 से 1918 तक चला था। यह युद्ध जर्मनी और इंग्लैंड, फ्रांस के मध्य चला था। इस विश्व युद्ध में लाखों की संख्या में लोग मारे गए थे। तदुपरांत द्वितीय विश्व युद्ध 1939 से 1945 तक हुआ था। यह युद्ध जर्मनी के नाजीवाद,इटली के फासीवाद, जापान के शाही,"धुरी शक्तियों", व,"मित्र राष्ट्रों" के मध्य हुआ था। बाद में विश्व के अनेकों देश, इस युद्ध से जुड़ते चले गये। इस विश्व युद्ध में 70 देशों ने जल,थल,व नभ सेनाओं के माध्यम से, हिस्सा लिया था। इस युद्ध में जापान के दो शहरों, "हिरोशिमा और नाकासाकी ", के ऊपर परमाणु बमों से हमला हुआ था। इसका दीर्घकालिक व प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था। विश्व में करोड़ों लोगों ने इस युद्ध में अपनी जान गंवाई थी। बमों के प्रभाव से उत्पन्न रेडिएशन से,कितने वर्षों तक यहां मानवता अपंग,और,अपाहिज पैदा हुई, जिसका कोई हिसाब किताब नहीं है।
 आज की स्थिति तो और भी अलग है। अब तो विज्ञान ने काफी तरक्की कर ली है। विश्व के अनेकों देशों के पास,घातक व नवीन तकनीक वाले हथियार आ चुके हैं। अब विश्व के अनेकों देश परमाणु हथियारों से संपन्न है।
 अनेकों देशों के पास हाईटेक और सुपर नोटिक हथियार हैं। डर इस बात का भी है कि बहुत से गलत मानसिकता वाले लोगों के पास भी,ऐसे हथियार हैं। ऐसे लोग अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए, मानवता को मिटाने और कुचलने से भी,पीछे नहीं रहते।
 युद्ध की भयावहता,और नुकसान को देखकर, इसका एक ही उपाय है, शांति। "शांति ",से ही युद्ध को टाला जा सकता है, व एक निर्णायक बोर्ड पर आकर,युद्ध को समाप्त किया जा सकता है।
 विश्व के बड़े और शक्तिशाली देश,यदि शांति की अपील करके,अपने साथ और अधिक राष्ट्रों को जोड़ें, तथा युद्ध स्तर पर कार्य करें, तो शांति बहाल की जा सकती है। यदि हम मानवता का बड़ा हनन,एक बार फिर से नहीं देखना चाहते हैं तो,शांति की बहाली बहुत आवश्यक है। शांति,प्रेम,और सौहार्द,से ही युद्ध को रोका जा सकता है,व एक निर्णायक लकीर खींची जा सकती है।

मेरे पहाड़ का एक आदमी

मेरे पहाड़ का एक आदमी,
 सीधा-साधा,भोला-भाला,
 दिल का था साफ,
सारी दुनिया से निराला।
 बचपन में माँ गई थी छोड़,
 मां की मृत्यु के बाद हो गया अकेला,
 पिता का व्यवहार फिर हो गया सौतेला,
 चाचा-चाची ने फिर,उसको पाला,
 समझ कर अपना लाड़ला, 
 बचपन से कुछ कमियांँ, उसमें दिखने लगी थी,
 स्वभाव उसका,थोड़ा गुस्स़ैल, थोड़ा शर्मीला,
 औरो से था हटकर,बचपन उसका,
 मिजाज बना फिर,उसका रंगीला।
 पढ़ाई-लिखाई में झुकाव ना था,
 स्कूल से कोई लगाव ना था,
 बौद्धिक स्तर उसका,बिन मांँझी नाव सा डोला,
 पर दिल का साफ था,वह दिलवाला।
 वक्त के साथ,उम्र भी उसकी बढ़़ रही थी,
 तरुण जवानी भी, धीरे-धीरे चढ़ रही थी,
 लोगों की मदद करना, जो बताया वो करना,
 बिना स्वार्थ सभी का काम,करने वाला,
 ऐसा था वो पागल मतवाला।
 पूरे गांँव में उसकी,एक अलग पहचान बन चुकी थी,
 किसी के लिए अच्छी,
 तो किसी के लिए उपवास का पात्र,
 बन चुकी थी, 
ऊपर वाले के अलावा,कोई भी ना था,उसका दुख-दर्द सुनने वाला,
 आंँसुओं को छुपाना सीख गया था,वो हिम्मतवाला।
 कभी कोई अपने पुराने कपड़े दे देता,
 कभी-कभी कोई खाना भी,उसको खिलाता,
 हंँस-हंँस के भोग लगाता,वो हर एक निवाला,
 खुश हो जाता फिर, उसको खिलाने वाला।
 फटे पुराने कपड़ों में भी,खुश रहता था वो,
 पैरों में जिंदगी भर,ना जूते-चप्पल कभी,       पहना था वो,
 ना धन-दौलत की चाहत,ना मोह-माया वाला,
 जगमगाते सितारों में, ध्रुव तारे वाला।
 वक्त का पहिया फिर आगे घूमा......
 बालों में आ चुकी थी, अब सफेदी उसकी,
 दिखने लगी थी,शरीर में कमजोरी भी उसकी,
 टूटे पीले दांतों में,खीसें निपोरने वाला,
 दर्पण जैसा साफ,आचरण वाला।
 और फिर एक दिन,चला गया वो सबको हंँसाने वाला,
 पत्थर को भी मोम जैसे,पिघलाने वाला,
 उसकी मौत पर फिर,सब एक होये थे,
 अपनों से ज्यादा, बाहर वाले वहाँ रोएं थे।
 हर दूसरे गांँव में दोस्तों, वैसा आदमी मिल ही जायेगा,
 किसी चीज का ना उसको लालच होगा,
 बस अपनों के प्यार का भूखा होगा,
 दुत्कारो मत, उन्हें प्यार दो,
 अपनों ने जिन्हें छोड़ा,समाज से उन्हें जोड़ दो।
 प्यार से गले लगाकर,कुशल-क्षेम उनकी पूछ लो,
 जाना तो है एक दिन सभी को, कर्म अपने सुधार लो।





Saturday, December 14, 2024

"जिंदगी और मौत"

जिंदगी और मौत दो सहेलियांँ थी,
 रहती थी एक दूसरे से,खफा-खफा,
 फिर भी यह अजीब पहेलियांँ थी।
 एक दिन किसी तीसरे ने,इन दोनों से पूछा,
 तुम दोनों क्यों,एक दूसरे से अलग-अलग रहती हो?
 बनाया तुम दोनों को ऊपर वाले ने,
 आपस में तनकर,तुम दोनों क्यों,फिर यह दर्द सहती हो?
 दोनों चुप थे,इस बात को लेकर,
 मैं बेहतर या तू बेहतर,
 बाकी सब बातों को छोड़,
 यह कैसे जज्बात, यह कैसी अजब सी होड़।
 थोड़ी चुप्पी, फिर जिंदगी बोली,
 मैं अच्छी हूंँ, मैं सच्ची हूंँ,
 जीवन जीना, सपने देखना,पूरे करना,मस्त- जिंदगी,हसीन सपने, सब कुछ तो मैं देती हूंँ।
 मेरे होने से, चारों तरफ नजारे हैं,
 बागों में मस्त बहारें हैं,
 अंँबर में टिमटिमाते सितारे हैं।
 चारों तरफ आहटें हैं,
 दुनिया में मुस्कुराहटें हैं,
 सोच समझ कर कह रही हूंँ,
 मैं अच्छी हूंँ, मैं बेहतर हूंँ।
 मौत तो बस रुलाती है,
 नाते सभी तुड़ाती आती है,
 सपने सभी छुड़ाती है,
 जिंदगी ने अपनी बात रखी थी।
 मौत अभी तक सुन रही थी,
 अपनी बात रखने की,अब धुन जगी थी,
 बोली मौत सुन जिंदगी, मैं रुलाती हूंँ,
 तो क्या तू नहीं रुलाती?
 इस पूरी दुनिया में कितनों को,
 क्या भूखे पेट तू नहीं सुलाती,
 हताशा और निराशा में, 
दुख-दर्द,और कुंठाओं में,
 दरकते रिश्ते, टूटते विश्वास,
 चकनाचूर हुये सपनों में,
 क्या मनुष्य की आंखों से नीर,
 तुम नहीं बहाती?
 अमीरी और गरीबी, जिंदगी की दो जिंदगानियों का,
 जमीन-आसमान सा फर्क है, इन दोनों की कहाँनियों का।
 टूटे ख्वाब, अधूरे सपने, रेंगती जिंदगी, पापी पेट की आग, गरीबों की कहानियाँ हैं,
 सुनहरे सपने,ठांट-बांट,रंगीन मिजाज,
 चिर-यौवन साथ, अमीर चिंगारियांँ हैं।
 फिर आगे तनकर बोली मौत,
 मैं कोई चेहरा नहीं बदलती,
 कोई प्राणी, कैसा भी हो,मेरे सामने सब एक समान,
 पंचतत्वों मे विलीन होना है सबने,
इसलिए मैं हूंँ महान।
 अब निर्णय की बारी थी,
 तीसरे शख्स ने कर ली तैयारी थी,
 तुम दोनों आपस में क्यों लड़ते हो?
 एक-दूसरे के पीछे क्यों पड़ते हो?
 इस लोक से परलोक, जाने का खेल है सारा,
 मोह-माया, प्रेम-बंधन, अपना पराया, मिथ्या है सारा।
 जिंदगी अगर आई है,तो मौत भी आएगी,
 यहांँ कोई ना रह पाएगा,आगे करम गति बताएगी,
 जीवन में ईश भक्ति है,तो जीवन में संतोष है,
 ना कोई कष्ट, ना कोई चिंता,और ना कोई दोष है।
 मौत सभी की आनी है,
 यह बात जानी और पहचानी है,
 कर्म मानव के अच्छे हैं तो,
 हम ईश्वर के सच्चे हैं तो,
 मोक्ष मिलेगा, हरि चरणों में,
 मुक्ति मिलेगी, प्रभु भक्ति में।








  

  

Thursday, December 12, 2024

"आंँसुओं "की कहानी

आंँसुओं की भी अपनी कहानी है,
 दिल में है दर्द,और आंखों में पानी है,
 समझ गए तो ठीक,
वरना मौजों की मस्त रवानी है।
 पीड़ है दिल में, घाव मन-मस्तिष्क में,
 सिल दिए होंठ भी, इसी कश्मकश में,
 सोचा था कोई जान ना पायेगा,हमारी कहानी,
 पर आंँसुओं ने कह दी अपनी जुबानी।
 बता के भी रोये,छुपा के भी रोये,
 अपना दुख भूल के,दूसरों को,हंँसा के भी रोये,
 बरसातों में नाव को, किनारे पर छोड़,
 हम अपने ख्यालों में थे खोये।
 खुशी में भी निकले,गम में भी निकले,
 दिन में भी निकले, शाम को भी निकले,
 हाल तो यह था कि, आग से कम,
 पानी से, ये ज्यादा पिघले।
 आंँसू-आंँसू में भी होता है फर्क,जान लो,
 किसी के छलके हैं, तो उनकी कदर जान लो,
 दूसरों ने जो दिये आंँसू,वह तो थम ही जाएंगे,
 पर अपनों के दिये आंँसू है नासूर, तुम इतना मान लो।
 किसी को मजबूत, तो किसी को कमजोर कर देते हैं,
 किसी को इस ओर,तो किसी को उस ओर कर देते हैं,
 ये तो वों फनकार है जो,
 पत्थर को मोम,और रात को भोर कर देते हैं।
 इन्हें (आंँसुओं को) दबाना भी सीख लो,
 इन्हें छुपाना भी सीख लो,
 जमाने को यह ना लगे, कि कमजोर हो तुम,
 इसलिए इन्हें अपनी ताकत बनाना भी सीख लो।
 मां की आंँखों के,ममता के आंँसू,
 भाई-बहनों की आंँखों के, निश्चल प्रेम के आंँसू,
 ना जाने कहांँ, खो गए हैं अब,
 हर आंँखों से बहते, निस्वार्थ से आंँसू।
 इन आंँसुओं को अपनी,ढाल बना लो अब,
 युद्ध के मैदान में हम अकेले,यही पुकार बना लो अब,
 कोई साथ दे,या ना दे,
 इन्हें (आंसुओं को) ना व्यर्थ बहने देंगे, यही जज्बात बना लो अब,
 "मैं अब बहुत अकेला हूंँ ",या,
 "अब अकेला बहुत हूंँ मैं ",
 इसी को अपने दिल की आवाज बना लो अब।







Wednesday, December 11, 2024

सत्य की खोज

क्या कभी आपने,सत्य की खोज करने की कोशिश करी है?अपने आप में यह प्रश्न,बड़ा अजीब भी है,और बहुत गहरा भी। हर किसी के मन में यह प्रश्न नहीं आ सकता। सबसे पहले तो यह जानना पड़ेगा कि सत्य क्या है?
 क्या केवल जो दिखता है,वह सच है?या सच बोलना ही सत्य है? यह वाकई में एक गूढ़ प्रश्न है।इस विषय के ऊपर अनेकों धर्मग्रंथ, व पुस्तकें हैं।सब अपने हिसाब से सत्य का मूल्यांकन करते हैं।
सत्य की खोज के लिए बाहरी संसार में भटकने की आवश्यकता नहीं होती। महान सनातन धर्म में, अनेकों ऋषियों, मुनियों, व तपस्वियों ने कठोर तप-साधना, करके, "सत्य के रहस्य ",पर्दा हटाया था।इसके(सत्य के), रहस्य को जानने के लिए आत्मबल, आत्म- चिंतन,ध्यान, योग व बौद्धिक क्षमता की मजबूती अनिवार्य है।अपने भीतर झांक कर, खुद में सत्य की खोज करना बहुत बड़ी बात है।जो मनुष्य इस रहस्य को जान जाता है, उसके लिए फिर सभी मार्ग सुगम हो जाते हैं।
 सत्य में बहुत शक्ति होती है, एक सच हजार झूठों को पछाड़ देता है।सत्य अकेला हो सकता है,परंतु कमजोर नहीं।सत्य के आगे तो बड़ी से बड़ी ताकतें भी झुक जाती है.
 सबके जीवन में इसकी परिभाषा और  
  एहसास अलग-अलग हो सकता है, किंतु निचोड़ एक सा होता है।
 सत्य का सार, और,"अंतिम सत्य" क्या है?
 मानव जीवन का अंतिम सत्य है, "आत्मा", जो हर जीव में है।एक निश्चित अवधि के उपरांत, हर आत्मा का परमात्मा में,विलय हो जाता है।शरीर नश्वर है, परंतु आत्मा अजर- अमर है। संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना उस परमेश्वर ने की है, आत्मा भी उन्हीं का हिस्सा है। जो एक निश्चित समयावधि के बाद, दोबारा परमेश्वर में,विलीन हो जाती है।बाकी सब कर्मों का खेल होता है. कर्मों के हिसाब से ही आत्मा को भिन्न-भिन्न प्रकार की योनियाँ मिलती है. अच्छे और सत्कर्मों से, अच्छी योनी, व बुरे कर्मों से ख़राब योनी.उस ईश्वर के लिए हमें,समय अवश्य निकालना चाहिये।प्रभु भक्ति और एकाग्र मन से, सत्य की खोज अवश्य करनी चाहिए।भक्ति,प्रार्थना,व योगों के माध्यम से,यह मार्ग सरल हो जाता है। सत्य की खोज करके,सत्य को जान लेना, किसी वरदान से कम नहीं है।

"अपने में - अपने आप की तलाश"

दिल में उठ रहे जज्बातों को,समेटने
के लिए,
  भीतर बहने वाले ज्वालामुखी को, शांत करने के लिए,
 एकांत में,एकांत को ढूंढने के लिए,
 बंजर जमीनों में,नई फसल उगाने के लिए,
 करी है क्या कभी खुद से बातें?               अपने में, अपने आप को तलाशने के लिए I
 अंधेरे को मिटाने वाले उजाले के लिए,
 अमावस की रात में, भोर के तारे के लिए,
 पतझड़ में उस,नवजीवित पौधे के लिए,
 सूखे हुए पुष्पों में,उस गुलाब की सुगंध के लिए,
 करी है क्या कभी खुद से बातें?
 अपने में, अपने आप को तलाशने के लिए I
 तनाव,अवसाद के पहाड़ को गलाने के लिए,
 जलती हुई गर्मी में, एक सुखद छांव के लिए,
 मरुभूमि में तप रहे पथिक को, पानी की हर एक बूंद के लिए,
 दुख रूपी धुंध की चादर को, हटाने के लिए,
 मनोबल के वेग को बढ़ाने के लिए,
 हार के भय को,जीत बनाने के लिए,
 करी है क्या कभी खुद से बातें?
 अपने में, अपने आप को तलाशने के लिए I
 आग में जलकर,खुद को कुंदन बनाने के लिए,
 अपनी नींद को छोड़,दूसरों को जगाने के लिए,
 स्वयं विषपान कर ,दूसरों को अमृत देने के लिए,
 गिरे आत्म बल को, लौह स्तंभ बनाने के लिए,
 आत्मा में उस" परमपिता परमात्मा "को मिलाने के लिए,
 करी है क्या कभी खुद से बातें?
 अपने में, अपने आप को तलाशने के लिए I

लेखक और पाठक

लेखक और पाठक  निरंतर लिखना भी एक चुनौती है। नित नूतन विचारों को पैदा करना, उन विचारों को शब्दों में पिरोना, फिर उन शब्दों को कवि...