प्रेम में डूबा हुआ,
मस्ती में लिपटा हुआ,
आपस में खोया हुआ।
नया नया मौसम था, नई-नई जवानी थी,
बदलें मौसम फिर, दोनों में अजब रवानी थी,
नये-नये पत्ते थे, नई-नई शाखायें थी।
घर गृहस्थी की गाड़ी दौड़ी जब,
खटपट की आवाजें आई,उनकी गाड़ी में तब,
प्रेम का स्थान अब तानों ने ले लिया,
मधुर भाषी जुब़ान ने अब,नीम पी लिया।
होने लगी फिर रोज की लड़ाईयाँ,
ईर्ष्या,तनाव, बुराई,क्लेश की थी गहराइयांँ ,
अपशब्दों का कोई वाण ऐसा ना बचा, जो
छूटा ना था,
भीतर थी वाणों की शैय्या, बस बाहर यह जिस्म बचा था।
बाहर वाले क्या रिश्तो के टूटने से,खुश नहीं होते हैं?
उनके क्या है पैमाने,जिसमें वह पीते हैं?
दोनों नासमझी में करते रहे यह गलतियांँ,
धूल चेहरे पर,और आईने के साथ मस्तियांँ।
एक दूसरे की आंँखों में देकर वह आंँसू,गहरे,
चीरकर कलेजे को, दोनों अब किस मोड़ पर हैं ठहरे,
टकराव हुआ,ठहराव हुआ,फिर एक दूजे से, लंबा अलगाव हुआ।
अब बाग ही नहीं, वहांँ बगीचा भी था,
फूल और कलियों का नवजीवन,दोनों ने साथ सींचा भी था,
फिर से दोनों एक हुए,
आखिर उन्हें अपने फूलों को बचाना भी तो था।
अपने थे जो,वह सब खो गए थे,
आंँखें सूख गई,किस-किस के लिए वह रोये थे।
वक्त का चक्र,अब आगे बढ़ता है।
थोड़ा-थोड़ा अब वो,एक दूसरे को समझने लगे थे,
गिले-शिकवे जितने थे,वो अब गलने लगे थे,
अपनी अपनी गलतियों का उन्हें अब आभास था,
बात तो दिल की, दिल में थी, बाहर खुला आसमान था।
जिम्मेदारियांँ अब कंधों पर थी,
मिलकर चलने में ही,दोनों की भलाई थी।
वक्त कटता रहा,समय बितता रहा,
पंछी अब खोंसला छोड़, उड़ चुके थे
बालों में सफेदी, और शरीर अब झुक चुके थे,
अब ना कोई इच्छा थी,ना कोई उमंगें थी,
दिन रात लड़ते रहे जिसके लिए, अब कहांँ वो तरंगे थी।
मृत्यु शैय्या पर लेटी थी पत्नी,
हाथ थाम अपने साथी का,
निशब्द काया थी, आंँखों में दोनों के आंँसुओं की झड़ी थी,
मास था कार्तिक का,बाहर दीपों की लड़ी थी,
यहीं पर तो जीवन साथी की जरूरत, हर काम में जरूरी थी,
प्राण छोड़े जब एक ने, दूसरे की अर्थी फिर वहांँ क्यों, तैयार खड़ी थी?
यही था वो प्रेम, यही थी वो शक्ति,
दो नश्वर शरीरों को,दे दी जिन्होंने मुक्ति।
साथ जीवन भर का हो,
प्रेम राधा-कृष्ण सा हो।
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