मैंने कलम से पूछा,
आज खामोश हो क्यों,
इतना व्यथित हो क्यों?
चुप्पी अभी भी बरकरार थी,
बंद लबों पर कुछ तो आस थी।
थोड़ा और झंझोरा, थोड़ा और निचोड़ा,
कलम ने जवाब दिया तब,
अपने अंदर का दुख-दर्द बयां किया अब।
मैं तो केवल माध्यम हूँ,
विचार तो तुम्हारे हैं,
मैं तो केवल मंजिल हूंँ,
राहें तो तुम्हारी है,
चुनौतियांँ, समस्याएंँ हजारों हैं,
पीड़ा-वेदना हर दिल में है,
उजाले की चाह में,भटक कर,
तुम पथ-प्रदर्शक तो बनो।
फैली है समाज में गंदगी,और कुरुतियांँ कईं,
मेैला पड़ा है दामन,श्वेत वस्त्रों में कईं,
कहीं पर व्यभिचार है,तो कहीं पर है भ्रष्टाचार,
धोने को इनके दाग,
तुम तेज करो,अपने विचारों की आग।
जातियों में बटाँ हुआ,
पिछड़ा और दलित समाज,
सदियों से कुचला हुआ,
पीड़ित और शोषित समाज,
उठाओ उनकी समस्याओं को,
जगाओ जड़ चेतन समाज को,
लौटकर इनकी सुधाओं को,
आगे बढ़ाओ समाज को।
चुनौतियांँ हर तरफ है,
खामोशियांँ चादर लपेटे हैं,
पहाड़ों के सीने में छुपे हैं कितने ज्वालामुखी,
जो इसने अपने में समेटे हैं,
चीरकर पहाड़ों के सीने,
करना होगा इलाज इनकी बीमारियों का,
लौह पुरुष फिर बना होगा,
भार उठाकर, अपनी जिम्मेदारियों का।
मेरे (कलम)में,शक्ति बहुत है,
बहुत ही तेज मेरा आत्मबल है,
तलवार से भी तेज धार मेरी है,
सीमाओं का मेरा,कोई ओर,कोई छोर नहीं है,
दिशा निर्देशित हूंँ मैं, राह मेरी उज्जवल है।
अपनी लेखनी के माध्यम से बनना होगा तुम्हें युग पुरुष,
लेखनी में अपनी गहराई लाओ,
विचारों को अपने और बढ़ाओ,
सबसे जुड़कर,सिंचित करो,तुम नव नूतन विचार,
आदि पुरुष बनके,करो समाज का तुम उद्धार।
हर कलम की यही व्यथा,और काम है,
बड़े परिवर्तनों में जुड़ा,उसका भी नाम है।
बहुत अच्छा
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