समझ किसी को कुछ आता नहीं, क्या करें,
हमारा क्या है, हमारा तो कुछ जाता नहीं.
घरों-घरों में लटके हुए हैं बड़े-बड़े से तालें,
खेती - बाड़ी अब करनी नहीं,खाने के पड़े हैं लाले.
कमाने को जो निकले थे कभी शहर,
बर्तन मांज रहा है आज होटलों में,चारों पहर.
सरकारी नौकरी वालों का भी है बुरा हाल,
ना इधर के, ना उधर के हैं,उनके प्यारे लाल.
अपने बालों में पड़ती हुई सफेदी को, देखें वो ऐसे,
गांव में वर्षों पहले देखी हुई,बर्फ हो जैसे.
पहले दो महीने गर्मी में, सब परिवार आ जाता था,
अपने खेतों, अपने पेड़ों,और अपने नौलों के बारे में बतलाता था.
मिट्टी में खेलना, ग्वाले जाना,झूला झूलना, सभी से मिलना,उसके बच्चों को बहुत भाता था.
लेकर जाता था वह शहरों को,यहां का निश्चल प्यार,
साथ में सब्जियां, दालें,बाड़ी,घी व आम का अचार.
वक्त वक्त का फेर है, बदल गया है अब जमाना,
लगा रहता है यहां, पुरानी पीढ़ी का आना जाना.
चूल्हों को छोड़, हर दिल में लगी है अब आग,
हाय रे हम उत्तराखंडी, हमारे कैसे फूटे भाग.
जो भाई-भाई, पर मरता था कभी,
वह भाई,अब भाई को देख कर, पल-पल जल रहा है,
दूसरे की खुशी, सुख संपत्ति को देख, तिल-तिल करके मर रहा है.
झूठा अभिमान, झूठा है दम्भ,
घर-घर में मचा है कैसा विद्वंश.
पहाड़ में विकास का भी हाल बुरा है,
कमीशन खोरी हुई,भू माफिया आये,यह साल बुरा है.
लड़कियों की पसंद भी गैर उत्तराखंडी, हो रहें हैं,
धर्म मजहब,जांत -पांत,क्या वह ये सब, देख रहे हैं?
बहुएं भी कुछ पंजाब से,तो कुछ नेपाल से आ रही है,
नयी -नयी संस्कृति, नए-नए संस्कार भी साथ में आ रहे हैं, "भांगड़ा", "घटु", में भी उत्तराखंडी,अब दबा के नाच रहे हैं.
ढोल,डमरू, हुड़ुक,मशकबीन,पड़े हैं अब बेजान,
मुरली की आवाज भी, हुई अब सुनसान.
पहाड़ हो रहे हैं वीरान,
जिससे सारे उत्तराखंड़ी हैं परेशान I
🙏🙏😃😃
ReplyDeleteTrue and heat touching lines
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