Friday, November 22, 2024

पलायन

वो गांव का टूटा ढ़हता हुआ घर,

जर्जर हुआ और हुआ बेजर,
टूटने लगी है दीवारें, अंदर लगता है अब डर,   
वो गाँव का टूटा 
ढ़हता हुआ  घर,    
कभी रसोई में इजा (मां),तो चौंथर(आंगन) में 
अम्मा होती थी,
चूल्हे में मडुए की रोटी, साग, चावल और गौहत की दाल होती थी,
चौंथर को रोज़ गोबर से लिपा जाता था ,जो करता है ,
अब चर चर,
वो गांव का टूटा ढ़हता हुआ घर .
खेतो में खेती होती थी, गौशालाओ में गाये दुही जाती थी, 
भैसों को रोज़ नहलाया जाता, गरमी उनको ज्यादा होती थी,                                      बाछुर,गायें,दौड़ती थी सर सर,
वो गांव का टूटा ढ़हता हुआ घर।
आज दाथुली की धार टूटी,
कौटुवे की खान टूटी,
हौ की नव वान टूटी,
बाघ और मिनुक टर्रानी टर टर,
वो गांव का टूटा ढ़हता हुआ घर .
छुआरें का पेड़ टूटा, 
निम्बू,अखरोट,पीछे छूटा,
"काफल की झाड़ी"से अब लगता है डर,
वो गांव का टूटा ढ़हता हुआ घर।
दाड़िम अब झड़ रहे,
आम अब सड़ रहे,
"अमरूद "का अब पता नहीं,
काफ़ो, हंसौलु अब झड़े झर- झर,
वो गांव का टूटा ढ़हता हुआ घर।
लौट आओ फिर भी,
देवभूमि हमारी है,
पहाड़ यहाँ पुकार रहे,अभी कितनी ज़िम्मेदारी है,
देने वाली भी वही है, करने वाले भी हमीं है,
और कितना रहेंगे हम अकड़कर,
वो गांव का टूटा ढ़हता हुआ घर।
                    

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