Sunday, December 8, 2024

"यम"और "मनुष्य"

मृत्यु शैय्या पर लेटा था एक मानव,
 निकट आ गया ये कैसा दानव,
 जिंदगी अब हार गई थी,
 मौत,विजय पताका लहरा रही थी,
 प्राण पखेरू उड़ गए अभी तो,
 डोर सांसों की थम गई तभी तो,
 सामने खड़े थे अब,यम महाराज,
 बोले याद अब तू कर, अपने पल-पल के काम काज,
 पल भर में याद करने लगा वो,बचपन से मृत्यु तक का सफर,
 परंतु याद उसे ना आया, कभी करी हो,उसने किसी की कदर,
 संगी-साथी, यारी-दोस्ती,या फिर रिश्तेदार,
 बार-बार छल किया था सबसे,जिसका वो था जिम्मेदार,
 बोले यम,चल फिर मानव,यमलोक तुझे ले चलता हूं,
 तेरे अच्छे बुरे कर्मों का फल, तुझे वही देता हूँ,
 तेरे एक-एक कर्म,दर्ज है मेरे बही खाते में,
 उनसे ही तेरी जगह निश्चित होगी,स्वर्ग या नरक में,
 सुनकर आत्मा, अब तो थर्र-थर्र कांपने लगी थी,
 करके वो भैंसे की सवारी, अब तो डरने लगी थी,
 मन ही मन वो करती विचार,
 क्या है मेरी किस्मत का द्वार,
 कैसा होगा स्वर्ग? क्या नरक का हाल?
 हाय! क्यों आया मेरा यह काल,
 हिम्मत करके बोली (आत्मा) यम से,मैं हूं अबोध!क्या इतना बता सकते हो,
 अंतर क्या दोनों में है,मुझे इतना समझा सकते हो ?
 हंसते हुए बोले यम,चल पहले तुझको,भेद इनके बीच का,समझाता हूं मैं,
 आगे तेरे कर्मों का भाग्य, तुझे बतलाता हूं मैं,
 तुझको पहले, नरक की सैर करवाता हूं,
 होता है क्या, दुष्ट आत्माओं के साथ, तुझे यह दिखलाता हूं,
 लेकर यम आत्मा को,आ गये थे पाताल लोक,
 धरती के नीचे,गहराई में, डरावना सा, कैसा यह विचित्र संजोग,
 नरक लोक का द्वार खोलते ही देखा, दुष्ट आत्मायें,तड़प रही थी,
 गर्म तेलों की कड़ाहें थी, भीषण अग्नि चारों तरफ धधक रही थी,
 उस खौलते तेल में,उन्हें डुबाया जा रहा था,
 प्रचंड अग्नि में फिर, उनको जलाया जा रहा था,
 चारों तरफ भीषण दुर्गंध फैली थी,
 रक्त,पीप,गंदगी,व मांस की,वहां थैली थी,
 वहां फैली थी मारा-मार,
 दुष्ट आत्माएं करती थी चीत्कार,
 सब एक दूसरे के लहू के प्यासे,
 हाथों में उनके, रक्तरंजित गंडासे,
 एक क्षण भी वहां रुकना अब मुश्किल था,
 चलो प्रभु अब स्वर्ग लोक,उसका बार-बार यही कहना था,
 लेकर यम फिर उस आत्मा को,पहुंचे फिर स्वर्ग लोक,
 धरती के ऊपर विराजमान था यह अद्भुत दिव्य लोक,
 द्वार खोलते ही सैकड़ो सेवक, वहां उपस्थित थे,
 गुलाब जल,व सुगंधित माला,उनके हाथों में सुशोभित थे,
 गजब के आसन,मधुर गायन, नृत्य करती सुंदर अप्सरायें थी,
 पवित्र वातावरण,स्वादिष्ट व्यंजन, सारी सुख सुविधायें थी,
 चारों ओर अद्भुत प्रेम का वातावरण,
 चारों तरफ सुख ही सुख, दुख का ना कोई आवरण,
 जाने को वहां से दिल ना करता,
 उफ़!कैसा विचित्र सम्मोहन,
 झंझोड़ कर उस आत्मा को बोले यम,चलते हैं अब यम लोक,
 देख के तुम्हारे कर्मों के,बही खाते,तय करते तुम्हें जाना किस लोक,
 तब थर्र-थर्र करके काँपने लगी आत्मा,
 याद आए तब उसको परम परमात्मा्,
 जाना उसे किस लोक,उसे अब यह ज्ञान था,
 फिर भी,सारी उम्र ना जानें,वह क्यों अनजान था,
 हम सब का हाल भी है वैसा,
 मिलता फल वहां जैसे को तैसा,
 दान-पुण्य,संतोष,प्रभु भक्ति,
 आसान होती है इनसे, प्राणों की मुक्ति,
 दूसरों की सेवा,मदद व अहंकार से दूरी,
 जो करें ईश्वरभक्ति,उनकी हर इच्छा होती है पूरी,
 मन में अगर, "परम आनंद और संतोष "है,
 सबसे सुखी, और स्वर्ग लोक,उसके लिए फिर यही है.










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